Karnataka Lingayat: कर्नाटक विधानसभा चुनाव होने में एक साल से भी कम समय बचा है. राज्य में सत्ता पर काबिज भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी), कांग्रेस और जनता दल सेक्युलर (जेडीएस) चुनावी तैयारियों में जुट गए हैं. सभी दल जनता की नब्ज टटोल रहे हैं कि आखिर कर्नाटक के लोगों का मूड क्या है? राज्य में जो पार्टी जनता का मूड भांप लेगी उसे ही कर्नाटक की गद्दी मिलेगी. लेकिन राज्य में तमाम मुद्दों के बावजूद एक ऐसा फैक्टर है जो कर्नाटक की राजनीति तय करता है. कर्नाटक में वो एक्स फैक्टर लिंगायत समुदाय है. माना जाता है कि लिंगायत समुदाय जिसकी तरफ मुड जाता है सत्ता की चाभी उसके पास चली जाती है. आखिर कौन हैं लिंगायत जो कर्नाटक में सरकार बनाने और बिगाड़ने में बड़ी भूमिका निभाते हैं?
224 विधानसभा और 28 लोकसभा की सीटें
दक्षिण भारत का राज्य कर्नाटक राजनीतिक लिहाज से काफी महत्तवपूर्ण है. राज्य में 224 विधानसभा और 28 लोकसभा की सीटें हैं. मौजूदा विधानसभा में बीजेपी के पास 121, कांग्रेस के पास 69, जेडीएस के पास 30 विधायक हैं. वहीं लोकसभा की 28 सीटों में से 25 बीजेपी, एक-एक कांग्रेस, जेडीएस और निर्दलिय के पास है. बीजेपी की नजर विधानसभा के साथ-साथ 2024 के लोकसभा पर टिकी हुई है, वो अपना पिछला प्रदर्शन दोहराना चाहेगी. मगर, कांग्रेस भी राज्य में बेरोजगारी और महंगाई के मुद्दे लेकर जा रही है, जिससे कि वो राज्य में अपनी खओई हुई सत्ता हासिल कर सके.
18 फीसदी आबादी
राजनीतिक जानकार मानते हैं कि कर्नाटक में जिस भी पार्टी ने लिंगायत समुदाय को साध लिया राज्य में उसकी सरकार बन जाती है. कर्नाटक की कुल आबादी में लिंगायतों की संख्या 18 फीसदी है, जो 110 विधानसभा सीटों पर सीधा असर डालते हैं. लिंगायत समुदाय को कार्नाटक की अगड़ी जातियों में गिना जाता है. कर्नाटक के अलावा पड़ोसी राज्यों महाराष्ट्र, तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में इस समुदाय की अच्छी आबादी है.
राज्य के मुद्दे
एक तरफ बीजेपी मुख्यमंत्री बसवराज बोम्मई और पूर्व सीएम बीएस येदियुरप्पा को लेकर दुविधा में है तो है तो दूसरी ओर कांग्रेस में पूर्व मुख्यमंत्री सिद्धारमैया और प्रदेश अध्यक्ष डीके शिवकुमार में सीएम की कुर्सी को लेकर कोल्ड वॉर चल रहा है. हालांकि बीजेपी ने बीएस येदियुरप्पा को केंद्र में राष्ट्रीय स्तर पर अहम जिम्मेदारी देकर मना लिया है. वहीं कांग्रेस में सिद्धारमैया और प्रदेश अध्यक्ष डीके शिवकुमार के बीच खुद राहुल गांधी ने सुलह करवाकर एक होने का संदेश दे दिया है. लेकिन आने वाले समय में दोनों पार्टियों के लिए गुटबाजी को शांत करके रखना बड़ी चुनौती होगी.
वर्तमान में हुए विवाद
जहां कांग्रेस देश में बढ़ती महंगाई और बेरोजगारी को लेकर राज्य में मुद्दा बना रही है. वहीं बीजेपी तमाम मुद्दों के बीच में हाल ही में हुए सावरकर और टीपू सुल्लतान के मुद्दे से राजनीतिक बढ़त लेना चाहेगी. इसका साथ ही बीजेपी के लिए कोई मजबूत सीएम चेहरे का ना होना एक ड्रॉ बैक हो सकता है, क्योंकि जिस तरह से राज्य में बीएस येदियुरप्पा की पैठ है मुख्यमंत्री बसवराज बोम्मई उससे थाड़ा कमतर दिखाई देते हैं. वहीं दोनों पार्टियों के अलग-अलग मुद्दे हैं. लेकिन इनके अलावा जनता दल सेक्युलर भी राज्य में अच्छी-खासी पैठ रखती है.
कौन हैं लिंगायत ?
कर्नाटक में लिंगायत समुदाय को अगड़ी जातियों में शुमार किया जाता है, जो संपन्न भी हैं. इनका इतिहास 12वीं शताब्दी से है. दरअसल 12वीं शताब्दी में एक समाज सुधारक हुए बासवन्ना, उन्होंने हिंदुओं में जाति व्यवस्था में दमन और ऊंच-नीच को लेकर आंदोलन छेड़ा था. बासवन्ना मूर्ति पूजा को नहीं मानते थे, साथ ही वेदों में लिखी बातों को भी खारिज कर दिया था. दरअसल, कर्नाटक में हिंदुओं के मुख्य तौर पर पांच समप्रदाय माने जाते हैं, ज क्रमश: शैव, वैष्णव, शाक्त, वैदिक और स्मार्त ने नाम से जाने जाते हैं.
इन्हीं में से एक शैव संप्रदाय के कई उप संप्रदाय हैं. उसमें से एक वीरशैव संप्रदाय है, लिंगायत इसी वीरशैव संप्रदाय का हिस्सा हैं. शैव संप्रदाय से जुड़े जो अन्य दूसरे संप्रदाय हैं वोनाश, शाक्त, दसनामी, माहेश्वर, पाशुपत, कालदमन, कश्मीरी शैव और कपालिक नामों से जाने जाते हैं.
वसुगुप्त ने 9वीं शताब्दी में कश्मीरी शैव संप्रदाय की नीव डाली, हालांकि इसस् पहले यहां बौद्ध और नाथ संप्रदाय के कई मठ मौजूद थे. इसके बाद वसुगुप्त के दो शिष्य हुए कल्लट और सोमानंद इन दोनों ने ही शैव दर्शन या शैव संप्रदाय की नींव डाली थी. वामन पुराण में शैव संप्रदाय की चार संख्या बताई गई है. जिन्हें पाशुपत, कालमुख, काल्पलिक और लिंगायत के नाम से जाना जाता है. वर्तमान में कर्नाटक और इसके पड़ोसी राज्यों के लिंगायत संप्रदाय, प्राची लिंगायत का ही नया रूप है. इस संप्रदाय के लोग शिवलिंग की पूजा करते हैं. लिंगायतों का वैदिक कर्मकांड में विश्वास नहीं है. लिंगायत पुनर्जन्म में भी विश्वास नहीं करते, इनका मानना है कि जीवन एक ही है और कोई भी अपने कर्मों से अपना जीवन को स्वर्ग और नर्क बना सकता है.
लिंगायतों का राजनीतिक रुझान
लिंगायत पारंपरिक रूप से बीजेपी का कोर वोटर रहे हैं. 1980 के दशक से ही लिंगायतों ने भारतीय जनता पार्टी का साथ दिया है. 80 के दशक से जब से बीजेपी का उभार हुआ तब से ही लिंगायतों ने राज्य के नेता रामकृष्ण हेगड़े पर भरोसा जताया. मगर बाद में लिंगायत कांग्रेस के बीरेंद्र पाटिल के साथ हो गए. इसके बाद से लिंगायत समुदाय ने कांग्रेस से दूरी बना ली. एक बार फिर से रामकृष्ण हेगड़े के पास लौटने के बाद लिंगायतों ने बीजेपी नेता बीएस येदियुरप्पा पर लंबे समय से भरोसा जता रहे हैं. वो खुद भी लिंगायत समुदाय से आते हैं. बता दें कि जब बीजेपी ने येदियुरप्पा को सीएम पद से हटाया तो इस समुदाय ने एक बार फिर बीजेपी से नाता तोड़ लिया था. यही वजह है कि दिल्ली में बैठा बीजेपी पार्टी हाई कमान बीएस येदियुरप्पा को राष्ट्रीय स्तर पर बड़ी जिम्मेदारी सौंपी है.
2018 में कांग्रेस का मास्टर स्ट्रोक
वहीं कर्नाटक के तत्कालीन मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने 2018 में चुनाव से ठीक पहले लिंगायत समुदाय को अलग धर्म का दर्जा दिए जाने की मांग को मानते हुए बड़ा फैसला लिया था. लिंगायत समुदाय एक लंबे समय से हिंदु धर्म से अलग धर्म का दर्जा दिए जाने की मांग करते रहे थे. तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने नागमोहन समिति की सिफारिशों को स्टेट माइनॉरिटी कमीशन एक्ट की धआरा 2डी के तहत मंजूर कर लिया था. इसकी अंतिम मंजूरी के लिए केंद्र के प्रस्ताव भेजा गया था. कांग्रेस ने लिंगायतों की मांग पर उन्हें अलग धर्म का दर्जा देने का समर्शन किया जबकि बीजेपी अभी भी लिंगायतों को हिंदू धर्म का हिस्सा मानती है.
बीएस येदियुरप्पा बीजपी का मजबूरी!
2013 में बीजेपी ने जब लिंगायतों के सबसे बड़े नेता (वर्तमान में) बीएस येदियुरप्पा को हटाया था तो नाराजगी की वजह से कांग्रेस को राज्य में सरकार बनाने का मौका मिल गया था. साथ ही कांग्रेस भी यह जानती है कि बिना लिंगायत समुदाय के सत्ता की सीढ़ी चढ़ पाना मुश्किल है. 2018 में चुनाव से ठीक पहले लिंगायतों को अलग धर्म का दर्जा देने का निर्णय कांग्रेस ने समुदाय को खुश करने के लिए ही लिया था. हालांकि इस समय विपक्ष में बैठे येदियुरप्पा भी सरकार से इस फैसले का विरोध नहीं कर पाए थे.
दोनों पार्टियों के पास मुद्दे
अब एक बार फिर कर्नाटक में विधानसभा चुनाव नजदीक हैं और राज्य में लिंगायत समुदाय की चर्चा होने लगी है. दोनों पार्टियां अपने-अपने मुद्दों के अलावा इस समुदाय को अपनी तरफ खिंचने का प्रयास कर रही हैं. लेकिन बीजेपी के पास प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम के साथ पार्टी का बड़ा तंत्र साथ में है. मगर कोई बड़ा सीएम चेहरा न होने के कारण एक कमी भी है. वहीं कांग्रेस के पास बेराजगारी और महंगाई के मुद्दों के अलावा पीएसआई घोटाले पर खुलासे से कटघरे में खड़ी कर्नाटक की बीजेपी सरकार को लेकर जनता के बीच जा सकती है. हाल ही में कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने लिंगायत समुदाय के लोगों से भी मुलाकात की है.