मोदी सरकार के 8 सालों में कितनी बदल गई भारत की विदेश नीति, पंडित नेहरू के जमाने क्या है अलग?

‘यूरोप को उस मानसिकता से बाहर निकलना होगा कि उसकी समस्याएं पूरी दुनिया की समस्याएं हैं लेकिन दुनिया की समस्या, यूरोप की समस्या नहीं है.’ इस साल जून के महीने में भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर ने स्‍लोवाकिया दिया ये बयान विदेशी नीति में आए बदलाव का सबसे बड़ा प्रमाण था. एस जयशंकर का ये बयान भारतीय विदेश नीति के अब तक के मिजाज से बिलकुल अलग था. विदेशी मामलों में भारत का रुख कभी आक्रामक नहीं रहा. 

लेकिन बतौर विदेश मंत्री एस जयशंकर का ये बयान इस बात की पुष्टि करता है कि विदेशी मामलों में भारत की नीति बीते 8 सालों में कितना बदल गई है. और इस बदलाव की तुलना विदेशी मामलों के जानकार अक्सर पंडित नेहरू की विदेश नीति से करते हैं जो गुट निरपेक्ष, पंचशील और समाजवादी व्यवस्था से प्रभावित थी. 

साल 2014 के मई महीने में नरेंद्र मोदी ने पहली बार पीएम के रूप में देश की सत्ता संभाली थी. उनके पहले कार्यकाल यानी पांच साल की छोटी अवधि में विदेश नीति में व्यापक बदलाव हुआ. मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद इस क्षेत्र में जितने बड़े पैमाने पर एकडमिक लिटरेचर तैयार हुआ है, वह पिछले किसी भी प्रधानमंत्री के कार्यकाल में नहीं हुआ था. यहां तक कि इस सरकार के आलोचक भी मानते हैं कि इसमें कोई शक नहीं है कि मोदी सरकार ने इन 8 सालों में विदेश नीति पर स्पष्ट छाप छोड़ी है और उसने भारत को दुनिया की बड़ी ताकत बनाने को लेकर अपने इरादे साफ कर दिए हैं. 

पीएम नरेंद्र मोदी ने अपने कार्यकाल की शुरुआत के पहले दिन से ही अपने पड़ोसी देशों को प्राथमिकता देने का सिलसिला शुरू किया. साल 2014 में नरेंद्र मोदी ने जब पीएम पद के लिए शपथ लिया था तभी पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ के साथ दक्षेस के सभी नेताओं को आमंत्रित किया गया था.

उनका ये कदम दर्शाता है कि उन्होंने पड़ोसियों को प्राथमिकता देने की नीति अपनाई. इसके अलावा उन्होंने अपने पहले विदेश दौरे के लिए भूटान को चुना जोकि भारत का पड़ोसी देश है. पीएम के अपने पड़ोसी देशों को प्राथमिकता देने की रणनीति से भारतीय विदेश नीति में सकारात्‍मक बदलाव आया. 

कूटनीतिक कौशल का परिचय

जहां तक देश के सामरिक हितों का सवाल है, मोदी सरकार ने अपना अलग रास्ता बनाया है. पीएम के पहले कार्यकाल के दौरान यानी 14 फरवरी 2019 को जम्मू-कश्मीर के पुलवामा में आतंकी हमला हुआ था. जिसके जवाब में पाकिस्‍तान में एयर स्ट्राइक का मामला हो या अनुच्छेद 370 हटाने का मसला भारत ने अपने कूटनीतिक कौशल का परिचय दिया है.

मोदी की विदेश नीति, नेहरू की विदेश नीति से इस मायने में अलग? 

विदेश मामलों के जानकार नरेंद्र तनेजा ने कहा दोनों ही नीतियों के अलग होने का सबसे बड़ा कारण समय है. आज का भारत और आज का विश्व अलग है. उस समय नेहरू की विदेश नीति जो थी उसमें नॉन एलाइंमेंट का ज्यादा बोलबाला था और सोवियत संघ और अमरिका में कुल मिलाकर एक शीत युद्ध चल रहा था. उस वक्त दुनिया दो अलग खेमों में बंटी हुई थी. ज्यादातर देश विकासशील थे.

लेकिन आज का जो विश्व है उसमें चुनौतियां बहुत ज्यादा है. आज के समय में चीन बहुत बड़ी शक्ति के रूप में उभर के आया है और उसका नजरिया भारत को लेकर आक्रामक है. वहीं दूसरी तरफ अमेरिका अब उतना ताकतवर नहीं है जितना पहले होता था.

आज की जो दुनिया है उसमें भारत के लिए जो चुनौतियां हैं वो इतिहास में कभी नहीं रही. इसलिए आज के जरूरत और चुनौतियों के हिसाब से जैसी विदेश नीति होनी चाहिए पीएम मोदी की विदेश नीति बिल्कुल वैसी ही है. हमारी विदेश नीति में लचीलापन भी है और दूरदर्शिता भी है.

रूस-अमेरिका और पश्चिमी देशों के बीच कैसा है संतुलन

वहीं दूसरी तरफ रूस और यूक्रेन के बीच पिछले कई दिनों से युद्ध चल रहा है. इस दौरान दुनिया साफ-साफ दो खेमों में बंटी हुई नज़र आ रही है. दुनिया के देश या तो अमेरिका (यूक्रेन) के साथ हैं या तो रूस के साथ हैं. लेकिन इस बीच भी भारत का रुख़ तटस्थ रहा. मोदी सरकार ने रूस और अमेरिका दोनों विरोधी देशों के साथ अपने रिश्‍तों में निकटता बनाए रखा. यह विदेश नीति का बड़ा कौशल था.

वहीं इस जंग के दौरान भारत की तटस्‍थता नीति की क्‍वाड देशों में ख़ासकर ऑस्ट्रेलिया ने जमकर निंदा की. भारत का ये तटस्थ रवैया ऑस्ट्रेलिया और जर्मनी जैसे देशों को सीधे तौर पर रास नहीं आ रहा. इन सबके बावजूद रूस-यूक्रेन जंग में भारत ने अपनी तटस्थता नीति का पालन किया. संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में उसने रूस के खिलाफ मतदान में हिस्सा नहीं लेकर अपने स्‍टैंड को और मज़बूत किया.
 
इसके अलावा भारत ने अमेरिकी दबाव से मुक्‍त होकर रूसी एस-400 डिफेंस मिसाइल सिस्टम ख़रीद मामले में साबित कर दिया कि वह अपने सामरिक संबंधों के मामले में स्वतंत्र है. अमेरिका के तमाम विरोध के बावजूद भारत ने इस रक्षा सौदे में यह साबित कर दिया अपने रक्षा सौदों के मामले में भारत किसी अन्य देश के दबाव में नहीं आएगा. 

इजरायल-फिलीस्तीन विवाद पर भारत

साल 2021 में जहां एक तरफ पूरी दुनिया कोरोना की मार झेल रहा था वहीं दूसरी तरफ इजरायल (Israel) और फिलिस्तीन (Palestine) आमने सामने आ गए थे. ऐसे में कुछ देश गुटबंदी करने में लग गए और उन्होंने अपने-अपने सुविधानुसार समर्थन के लिए एक देश को चुन लिया.

पाकिस्तान, टर्की समेत ज्यादातर मुस्लिम देश जहां फिलिस्तीन को सपोर्ट कर रहे थे वहीं अमेरिका, अलबेनिया, ऑस्ट्रेलिया, ऑस्ट्रिया, ब्राजील, कनाडा, कोलंबिया, साइप्रस, जॉर्जिया, जर्मनी, हंगरी, इटली, स्लोवेनिया और यूक्रेन समेत कई देश इजरायल के साथ खड़े हैं.

इन सब के बीच जिसपर पूरी दुनिया की नजर टिकी थी वह देश था भारत. फिलीस्तीन और भारत के रिश्ते शुरुआत से ही काफी बेहतर रहे हैं. दोनों देशों के बीच इतने अच्छे रिश्ते रहे हैं कि सत्तर के दशक में फिलीस्तीनी मुक्ति संगठन (पीएलओ) के मुखिया यासिर अराफात इंदिरा गांधी को अपनी बड़ी बहन मानते थे और उनकी कोई भी बात नहीं टालते थे. साल 1974 में भारत ने फिलीस्तीन मुक्ति संगठन को मान्यता दी थी. भारत ऐसा करने वाला पहला अकेला गैर मुस्लिम देश था. वहीं साल 1988 में भारत फिलिस्तीन को बतौर राष्ट्र मान्यता देने के समर्थन में भी खड़ा था. 

वहीं इजरायल की बात करें इस देश ने हमेशा ही भारत का हर मुद्दे पर साथ दिया है. भारत जहां इजरायल के इंटेलिजेंस, रक्षा सौदे और व्यापार के मुद्दे पर साथ है लेकिन मोदी सरकार के आने से पहले तक भारत की विदेश नीति फिलीस्तीन के प्रति झुकाव वाली रही है. वह फिलीस्तीन के साथ मानवाधिकार और उसकी आजादी के मुद्दे पर खड़ा रहा है. यही वजह है कि दोनों ही देश हमेशा भारत को अपना करीबी मानते रहे हैं.

भारत हमेशा से फिलीस्तीन के लिए एक अलग राष्ट्र और पूर्वी यरुशलम को उसकी राजधानी बनाए जाने का पक्षधर रहा है लेकिन 2021 में जब दोनों देश एक दूसरे के आमने सामने थे तब भारत ने पहली बार इजरायल और फिलीस्तीन के बीच मसले को सुलझाने के लिए ‘दो राष्ट्र समाधान’ का जिक्र नहीं किया. शायद ऐसा पहली बार होगा जब इजरायल-फिलीस्तीन संकट को लेकर भारत ने अपने बयान से इस महत्वपूर्ण लाइन को हटाया है. 

इससे पहले सुरक्षा परिषद में भारत ने कहा था, ‘हम दोनों पक्षों से ज्यादा से ज्यादा संयम बरतने की अपील करते हैं और तनाव बढ़ाने वाले कदमों से बचने और यरुशलम और आसपास की जगहों पर यथास्थिति में एकतरफा बदलाव से बचने की अपील करते हैं.’ कभी फिलिस्तीन को खुलकर अपना सपोर्ट करने वाले देश भारत के इस बयान से लग रहा था कि भारत ने दोनों पक्षों को लेकर संतुलित बयान दिया है. 

विदेशी मामलों के जानकार नरेंद्र तनेजा का कहना है, ‘भारत की इजरायल और फिलीस्तीन को लेकर नीति में राष्ट्रहित नहीं बल्कि भारत के मुस्लिमों को खुश करने के लिए थी जो एक तरह से फिलीस्तीन को लेकर एकतरफा थी. लेकिन भारत अब खुलकर इजराय के साथ अपने संबंध मजूबत कर रहा है. साथ ही मुस्लिम देशों से भी सबसे हमारे बेहतरीन हैं’.

अरब देशों के साथ भारत की विदेश नीति 
खाड़ी देश संयुक्त अरब अमीरात,  कुवैत, सऊदी अरब, बहरीन, ओमान और कतर से भारत के द्विपक्षीय संबंध आर्थिक दृष्टि से काफी मजबूत रहे हैं. खाड़ी सहयोग संगठन भारत के सबसे बड़े क्षेत्रीय व्यापार साझेदार में से है. भारत ने संयुक्त अरब अमीरात के साथ कुछ समय पहले ही मुक्त व्यापार समझौता किया है और 50 अरब डालर के द्विपक्षीय व्यापार के लिए हस्ताक्षर किए हैं. इसके अलावा भारत की सबसे ज्यादा कामकाजी आबादी भी खाड़ी देशों में रहती है जो हर साल भारत को 70 से 80 अरब डालर के बीच की रकम भेजती है. 

लेकिन हाल ही में बीजेपी नेता एक विवादित बयान की अरब देशों काफी निंदा की है. बात यहां तक यहां तक पहुंच गई कि तीन अरब देशों ने भारतीय राजदूत को तलब कर सफाई मांगना शुरू कर दिया.  मामले की गंभीरता को देखते हुए बीजेपी प्रवक्ता को निलंबित कर दिया गया है. लेकिन दूसरी ओर कूटनीतिक तरीकों से इन देशों को भी समझाने की कोशिश की गई.  

इस विवाद से इतर अगर हम सऊदी अरब और भारत के संबंधों की बात करें तो जम्मू-कश्मीर से अुच्छेद 370 हटने के बाद भारत ने सऊदी अरब में निवेश का ऐलान कर दिया. पीएम मोदी अपने कार्यकाल के दौरान तीन बार सऊदी अरब जा चुके हैं. साल 2016 में मोदी पहली बार जब इस देश गए तो सऊदी अरब के बादशाह सलमान ने उन्हें सऊदी अरब का सर्वोच्च नागरिक सम्मान दिया था. 

दूसरी यात्रा में फ़्यूचर इन्वेस्टमेंट इनीशिएटिव समिट में शामिल हुए. जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 खत्म करने के मुद्दे पर सऊदी अरब अन्य मु्स्लिम देशों से अलग एक तरह से भारत के समर्थन में आया. जबकि तुर्की और मलेशिया जैसे देश पाकिस्तान के साथ खड़े नजर आए. 

चीन के साथ भारत के रिश्ते 

साल 2013 में भारत के तत्कालीन रक्षा मंत्री एके एंटनी ने राज्यसभा में एक बयान के दौरान माना था कि चीन ने सीमावर्ती इलाकों में बेहतरीन बुनियादी ढांचा खड़ा कर लिया है और यह भारत के लिए एक ‘चूक’ है. उन्होंने कहा थी कि पूर्व में एक नीति थी कि चीन सीमा पर कुछ भी करे उसकी ओर देखो ही नहीं.  लेकिन साल 2017 में हुए डोकलाम विवाद के बाद चीन से सटी सीमा पर भारत ने भी सड़कों का जाल बिछाना शुरू कर कर दिया है. चीन इससे चिढ़ा है साथ ही भारत सरकार के इस नए आक्रामक अंदाज से हैरान भी है. 

चीन के साथ भारत की विदेश नीति की बात करें तो जब नरेंद्र मोदी ने पीएम के रूप में देश का कार्यभार संभाला था तब उन्होंने पड़ोसी देशों को प्राथमिकता देने की रणनीति के तहत चीन के साथ अच्छे रिश्ते स्थापित करने की कोशिश की गई. जिसके बाद साल 2017 में डोकलाम को लेकर विवाद शुरू हुआ चीन के साथ भारत के रिश्ते बिगड़ने लगे. 

वहीं दो साल पहले यानी साल 2020 में लद्दाख की सीमा विवाद को लेकर भारत और चीन के सैनिकों के बीच हिंसक झड़प हुई थी. झड़प के बाद वहां से सैनिकों को पीछे हटने को लेकर भारत और चीन के सैनिक कमांडरों के बीच अब तक कई दौर की बातचीत हुई लेकिन इसका कोई ठोस नतीज़ा नहीं निकल पाया. गलवान घाटी में दोनों देशों के सैनिकों की हिंसक झड़प के बाद बीच पूर्वी लद्दाख में गतिरोध शुरू हो गया था. इसके बाद दोनों देशों ने धीरे-धीरे इस इलाके में सैनिकों और हथियारों की तैनाती बढ़ाई. 

एक तरफ जहां सीमा विवाद के बाद दोनों देशों के रिश्ते में तल्खी आई है तो वहीं दूसरी तरफ भारत और चीन के बीच व्यापार और निवेश भी लगातार बढ़े हैं.  जनवरी में चाइना जनरल एडमिनिस्ट्रेशन ऑफ़ कस्टम के अनुसार साल 2021 में चीन का भारत से उसका व्यापार 125.6 अरब डॉलर तक पहुंच गया. इसमें भारत का आयात 97.5 अरब डॉलर रहा है. वहीं उसका निर्यात महज़ 28.1 अरब डॉलर का रहा.

सीमा विवाद के हल पर 4 सितंबर 2022 को विदेश मंत्री ने गुजरात के आईआईएम अहमदाबाद में छात्रों को भारतीय विदेश नीति पर संबोधित करते हुए कहा कि 2 साल पहले, चीन ने भारत के साथ किए गए समझौते का उल्लंघन करते हुए चाल चली थी. लेकिन हम अपनी जमीन पर खड़े रहे और बिना किसी रियायत के इस पर काम कर रहे हैं. उन्होंने कहा कि पूरी दुनिया मानती है कि भारत अपने हितों की रक्षा करने में सक्षम है. 

गौरतलब है कि गलवान विवाद के बाद भारतीय सेना को बड़े हथियारों के साथ वहां पर तैनात कर दिया गया था साथ ही वायुसेना ने भी अलर्ट कर दिया गया था. चीन ने कई बार धमकी भी दी लेकिन भारत पर इसका असर नहीं पड़ा. 

हालांकि कि कांग्रेस सहित कई विपक्षी दल आरोप लगाते हैं कि चीन ने कई जगह पर भारत की जमीन पर कब्जा रखा है लेकिन सरकार ने संसद में इन बातों को पूरी तरह से नकार दिया. 

हाल ही में जब यूक्रेन युद्ध के समय भारत ने अमेरिकी दबाव दरकिनार करते हुए रूस को लेकर रुख में कोई बदलाव नही किया तो अमेरिका तरफ से कहा गया कि चीन के साथ विवाद बढ़ने पर रूस मदद करने नहीं आएगा. इस पर भारतीय विदेश मंत्री जयशंकर ने भी जवाब दिया कि भारत- चीन के साथ संबंधों को हैंडल करने में सक्षम है.